Uttarakhand:हिमालय की गोद में बसे चारों धाम की अपनी विशेषता, जानिए धामों की पौराणिक मान्यता और पहुंचने का मार्ग

उत्तराखंड के विश्व प्रसिद्ध चारधाम यात्रा- 2024 मई माह में शुरू होने जा रही है। जिसको लेकर सरकार और प्रशासन ने अभी से तैयारियां शुरू कर दी है। चारधाम यात्रा उत्तराखंड की एक महत्वपूर्ण यात्रा है। जिसमें देश की ही नही अपितु विदेशों से भी बड़ी संख्या में श्रद्धालु यहां आते है।

हिमालय की गोद में बसें चारो धाम की अपनी-अपनी विशेषता है। ये गढ़वाल मण्डल के उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग और चमोली जिलों में स्थित है। पौराणिक गाथाओं और धर्मग्रंथो में गंगोत्री, यमुनोत्री, केदारनाथ और बद्रीनाथ की यात्रा मात्र से मनुष्य के इस जन्म के पाप धुल जाते है। साथ ही जन्म-मृत्यु के बंधन से भी मुक्ति मिल जाती है। इसलिए इन स्थानों को धरती का स्वर्ग कहां जाता है।

पौराणिक मान्यता अनुसार, चारधाम यात्रा के चार पड़ाव है। जिसमें सबसे पहले यमुनोत्री में मां यमुना जी के दर्शन कर आगे की यात्रा शुरू करता है। उसके बाद दूसरे पड़ाव में गंगोत्री धाम पहुंचकर मां गंगा जी का आशीर्वाद लेते है। तीसरा पड़ाव भगवान शिव का है, जिससे केदारनाथ धाम के नाम से जाना जाता है। केदारनाथ में भगवान शिव के दर्शन करने बाद श्रद्धालु चारों धामों के अन्तिम पड़ाव बद्रीनाथ पहुंचते है। जहां भगवान बद्री विशाल के दर्शन करने के बाद उनकी सम्पूर्ण यात्रा पूरी होती है।


आइये जाने चारो धामों की पौराणिक मान्यता और वहां पहुंचे का मार्ग


यमुनोत्री धाम
उत्तरकाशी जिले के बांदरपूंछ के पश्चिमी छोर पर पवित्र यमुनोत्री का मंदिर स्थित है। यह समुद्रतल से 3235 मीटर की उचाई पर स्थित है। परंपरागत रूप से यमुनोत्री चार धाम यात्रा का पहला पड़ाव है। रंदाप चट्टी से 6 किलोमीटर की चढ़ाई चढ़ने के बाद यमुनोत्री पहुंचा जा सकता है। यहां पर स्थित यमुना मंदिर का निर्माण जयपुर की महारानी गुलेरिया ने 19वीं शताब्दी में करवाया था। यह मंदिर (3,291 मी.) बांदरपूंछ चोटि (6,315 मी.) के पश्चिमी किनारे पर स्थित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार यमुना सूर्य की बेटी थी और यम उनका बेटा था। यही वजह है कि यम अपने बहन यमुना में श्रद्धापूर्वक स्नान किए हुए लोगों के साथ सख्ती नहीं बरतता है। यमुना का उदगम स्थल यमुनोत्री से लगभग एक किलोमीटर दूर 4,421 मीटर की ऊंचाई पर स्थित यमुनोत्री ग्लेशियर है। यमुनोत्री मंदिर के समीप कई गर्म पानी के सोते हैं जो विभिन्न पूलों से होकर गुजरती है। इनमें से सूर्य कुंड प्रसिद्ध है। कहा जाता है अपनी बेटी को आर्शीवाद देने के लिए भगवान सूर्य ने गर्म जलधारा का रूप धारण किया। श्रद्धालु इसी कुंड में चावल और आलू कपड़े में बांधकर कुछ मिनट तक छोड़ देते हैं, जिससे यह पक जाता है। तीर्थयात्री पके हुए इन पदार्थों को प्रसादस्वरूप घर ले जाते हैं। मान्यता है कि यमुना के पवित्र जल में स्नान करने से सभी पापों की नाश होता है और असामयिक-दर्दनाक मौत से रक्षा होती है। शीतकाल के दौरान मंदिर के कपाट बंद कर दिये जाते हैं और देवी यमुना की मूर्ति प्रतीक चिन्ह को उत्तरकाशी के खरसाली गांव में लाया जाता है और अगले छह महीने तक माता यमुनोत्री की प्रतिमा, शनि देव मंदिर में रखी जाती है।

धाम जाने पहुंचने का मार्ग
यमनोत्री धाम के लिए आप ऋशिकेष, नरेंद्रनगर, बरकोट, स्यानाचट्टी, हनुमानचट्टी फूूलचट्टी और जानकीचट्टी मार्ग होते हुए यमुनोत्री धाम पहुंच सकते है। धरासू से एक रास्ता गंगोत्री व दूसरा यमुनोत्री की तरफ की ओर चला जाता है। यह से बड़कोट होते हुए जानकी चट्टी तक वाहन से सफर किया जा सकता है। जानकी चट्टी से 6 किलोमिटर पैदल चलकर यमुनोत्री पहुंचा जाता है। जानकी चट्टी से आप पिठ्टू, खच्चर या पालकी से जा सकते है।

गंगोत्री
गंगोत्री समुद्र तल से 9,980 (3,140 मी.) फीट की ऊंचाई पर स्थित है। चारधाम यात्रा में अगला प्रमुख धाम गंगोत्री धाम है। गंगोत्री भारत के पवित्र और आध्यात्मिक रूप से महत्वपूर्ण नदी गंगा का उद्गगम स्थल भी है। गंगोत्री में गंगा को भागीरथी के नाम से जाना जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा भागीरथ के नाम पर इस नदी का नाम भागीरथी रखा गया। कथाओं में यह भी कहा गया है कि राजा भागीरथ ने ही तपस्या करके गंगा को पृथ्वी पर लाए थे। गंगा नदी गोमुख से निकलती है। ऐसा माना जाता है कि 18वीं षताब्दी में गोरखा कैप्टन अमर सिंह थापा ने आदि शंकराचार्य के सम्मान में गंगोत्री मंदिर का निर्माण किया था। यह मंदिर भागीरथी नदी के बाएं किनारे पर स्थित सफेद पत्थरों से निर्मित है। इसकी ऊंचाई लगभग 20 फीट है। मंदिर बनने के बाद राजा माधोसिंह ने 1935 में इस मंदिर का जीर्णोद्धार किया। फलस्वरूप मंदिर की बनावट में राजस्थानी शैली की झलक मिल जाती है। हिंदू धर्म में गंगोत्री को मोक्षप्रदायनी माना गया है। यही वजह है कि हिंदू धर्म के लोग चंद्र पंचांग के अनुसार अपने पुर्वजों का श्राद्ध और पिण्ड दान करते हैं। मंदिर में प्रार्थना और पूजा आदि करने के बाद श्रद्धालु भगीरथी नदी के किनारे बने घाटों पर स्नान आदि के लिए जाते हैं। तीर्थयात्री भागीरथी नदी के पवित्र जल को अपने साथ घर ले जाते हैं। इस जल को पवित्र माना जाता है प्रत्येक वर्ष सर्दियों में, गोवर्धन पूजा के शुभ अवसर पर गंगोत्री धाम के कपाट बंद कर दिये जाते है और माँ गंगा की प्रतीक चिन्हों को गंगोत्री से हरसिल शहर के मुखबा गांव में लाई जाती है और अगले छह महीनों तक वही रहती है।

धाम जाने पहुंचने का मार्ग
गंगोत्री धाम पहुंचने के लिये आपको सबसे पहले उत्तरकाशी पहुंचना होगा। उत्तरकाशी से गंगोत्री तक की दूरी 99 किलो मीटर है। उत्तरकाशी पहुंचने के बाद आपको गंगोत्री के लिए बस-टैक्सी आसानी से मिल जाएगी।

केदारनाथ
केदारनाथ समुद्र तल से 11,746 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यह मंदाकिनी नदी के उद्गगम स्थल के समीप है। केदारनाथ के ज्योतिर्लिंग पर जलाभिषेक को हिंदू धर्म में पवित्र माना जाता है। चारधाम यात्रा में तीसरा प्रमुख धाम केदारनाथ धाम है। केदारनाथ त्याग की भावना को भी दर्शाता है। यह वही जगह है जहां आदि शंकराचार्य ने 32 वर्ष की आयु में समाधि में लीन हुए थे। इससे पहले उन्होंने वीर शैव को केदारनाथ का रावल (मुख्य पुरोहित) नियुक्त किया था। वर्तमान में केदारनाथ मंदिर 337वें नंबर के रावल द्वारा उखीमठ, जहां जाड़ों में भगवान शिव को ले जाया जाता है, से संचालित हो रहा है। इसके अलावा गुप्तकाशी के आसपास निवास करने वाले पंडित भी इस मंदिर के काम-काज को देखते हैं। केदारनाथ धाम 12 ज्योतिर्लिंगों की सूची में, है और पंच-केदार में सबसे महत्वपूर्ण मंदिर है। यह धाम हिमालय की गोद में और मंदाकिनी नदी के तट के पास स्थित है जो 8वीं ईस्वी में आदि-शंकराचार्य द्वारा निर्मित है। किंवदंतियों के अनुसार, कुरुक्षेत्र की महान लड़ाई के बाद पांडव भ्रातृहत्या के पाप से मुक्ति पाना चाहते थे, और इन पापो से मुक्त होने के लिये उन्होंने शिव की खोज शुरू की। परन्तु भगवान शंकर पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे, इसलिए वे वहां से अंतर्ध्यान हो कर केदार में जा बसे। उन्हें खोजते हुए हिमालय तक आ पहुंचे । पांडवों से छिपने के लिए, शिव ने खुद को एक बैल में बदल दिया और जमीन पर अंतर्ध्यान हो गए। लेकिन भीम ने पहचान लिया कि बैल कोई और नहीं बल्कि शिव है और उन्होंने तुरंत बैल के पीठ का भाग पकड़ लिया। पकडे जाने के डर से बैल जमीन में अंतर्ध्यान हो जाता है और पांच अलग-अलग स्थानों पर फिर से दिखाई देता है- ऐसा माना जाता है कि जब भगवान शंकर बैल के रूप में अंतर्ध्यान हुए, तो उनके धड़ से ऊपर का भाग काठमाण्डू में प्रकट हुआ ( जो आज पशुपतिनाथ मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है), शिव की भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मद्महेश्वर में और जटा कल्पेश्वर में प्रकट हुए। इसलिए इन चार स्थानों सहित श्री केदारनाथ को पंचकेदार कहा जाता है। दीपावली के बाद, सर्दियों में मंदिर के कपाट बंद कर दिये जाते है और शिव की मूर्ति को उखीमठ के ओंकारेश्वर मंदिर में ले जाया जाता है जो अगले छह महीनों तक उखीमठ में रहती है।

धाम जाने पहुंचने का मार्ग
केदारनाथ आप ऋशिकेष, देवप्रयाग, श्रीनगर, रूद्रप्रयाग, गुप्तकाषी, फाटा, सोनप्रयाग और गौरीकुंड तक वाहन से जा सकता है। गौरीकुंड के बाद आपको केदारनाथ पहुंचने के लिए 16 किमी की ट्रेकिंग करनी पड़ती है। तो आप एक विकल्प यह है कि आप गुप्तकाशी, फाटा, गौरीकुंड आदि से हेलीकॉप्टर की उड़ान ले सकते हैं।

बद्रीनाथ
बद्रीनाथ नर और नारायण पर्वतों के मध्य स्थित है, जो समुद्र तल से 10,276 फीट (3,133मी.) की ऊंचाई पर स्थित है। अलकनंदा नदी इस मंदिर की खूबसुरती में चार चांद लगाती है। चारधाम यात्रा का चौथा और अंतिम धाम बद्रीनाथ धाम है। ऐसी मान्यता है कि भगवान विष्णु इस स्थान ध्यनमग्न रहते हैं। लक्ष्मीनारायण को छाया प्रदान करने के लिए देवी लक्ष्मी ने बैर (बदरी) के पेड़ का रूप धारण किया। लेकिन वर्तमान में बैर का पेड़ तो बहुत कम मात्रा में देखने को मिलता है लेकिन बद्रीनारायण अभी भी ज्यों का त्यों बना हुआ है। नारद जो इन दोनों के अनन्य भक्त हैं उनकी आराधना भी यहां की जाती है। कालांतर में जो मंदिर बना हुआ है उसका निर्माण आज से ठीक दो शताब्दी पहले गढ़वाल राजा के द्वारा किया गया था। यह मंदिर शंकुधारी शैली में बना हुआ है। इसकी ऊंचाई लगभग 15 मीटर है। जिसके शिखर पर गुंबज है। इस मंदिर में 15 मूर्तियां हैं। मंदिर के गर्भगृह में विष्णु के साथ नर और नारायण ध्यान की स्थिति में विराजमान हैं। ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण वैदिक काल में हुआ था जिसका पुनरूद्धार बाद में आदि शंकराचार्य ने 8वीं षताब्दी में किया। इस मंदिर में नर और नारायण के अलावा लक्ष्मी, शिव-पार्वती और गणेश की मूर्ति भी है। उप-महाद्वीप में बद्रीनाथ धाम सबसे पवित्र और दौरा किया गया धाम है। बद्रीनाथ मंदिर के अंदर, भगवान विष्णु की 1 मीटर लंबी काले पत्थर की मूर्ति है जो अन्य देवी-देवताओं से घिरा हुआ है। ऐसा माना जाता है कि यहाँ स्थित भगवान विष्णु की मूर्ति 8 स्वयंभू या स्वयं व्यक्त क्षेत्र मूर्ति में से एक है, जिसकी स्थापना आदि शंकराचार्य ने की थी। अन्य धामों की तरह, बद्रीनाथ धाम भी मध्य अप्रैल से नवंबर की शुरुआत तक, केवल छह महीने के लिए ही खुलता है। सर्दियों के दौरान, भगवान विष्णु की मूर्ति जोशीमठ के नरसिंह मंदिर में स्थानांतरित कर दी जाती है और अगले छह महीने तक वहाँ रहती है।

धाम जाने पहुंचने का मार्ग
बद्रीनाथ आप सड़क मार्ग या हेलीकाप्टर से पहुंच सकते है। ऋशिकेष से बद्रीनाथ की दूरी लगभग 291 किलो मिटर है। बद्रीनाथ जाने के लिए आपको सबसे पहले ऋशिकेष से अपना सफर षुरू करना होता है। इसके बाद आप देवप्रयाग, श्रीनगर, रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, नंदप्रयाग, चमोली, बिरही, पीपलकोटी और जोशीमठ होते हुए बद्रीनाथ आ सकते है।

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